बोलता सच पथरदेवा देवरिया : अगर आप “विजय कुशवाहा” नाम को बस एक आम नाम समझते हैं, तो यकीन मानिए—आप इस लेख को पढ़ने के बाद इसे कभी नहीं भूल पाएंगे। यह नाम अब सिर्फ एक पहचान नहीं, बल्कि देवरिया जिले के जैदपट्टी गांव में दुख की घड़ी में कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले एक सच्चे हमदर्द का प्रतीक बन चुका है। जहां आज के दौर में रिश्ते और समाजिकता स्वार्थ के तराजू पर तौले जाने लगे हैं, वहीं विजय कुशवाहा जैसे लोग समाज में इंसानियत की लौ जलाए हुए हैं। चाहे कोई गरीब हो या अमीर, हिंदू हो या मुस्लिम, विजय कुशवाहा हर किसी की अंतिम यात्रा में शरीक होते हैं—बिना किसी भेदभाव के।
उनका मानना है:
“जब मैं किसी की अंतिम यात्रा में शामिल होता हूँ, तो मुझे आत्मिक शांति और सच्चे मानवीय धर्म का अनुभव होता है। यही मेरी सबसे बड़ी संतुष्टि है।”
अब तक वह हजारों अंतिम यात्राओं में शामिल हो चुके हैं, और आज भी जब किसी गांव-गिरांव में शोक की खबर आती है, तो सबसे पहले जो चेहरा वहां दिखता है, वह होता है विजय कुशवाहा का। उनका जीवन बेहद साधारण रहा है। प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव जैदपट्टी में पूरी की, और जीवन की सादगी को कभी त्यागा नहीं। यही नहीं, वे देवरिया के प्रसिद्ध हिरमाती मंदिर (देवरिया धुस) में मुख्य पुजारी भी रह चुके हैं, जहां उन्होंने समाज सेवा और धार्मिक कार्यों के बीच संतुलन बनाए रखा।
समाज को जोड़ने वाली एक जीवंत कड़ी
आज जब समाज जाति-धर्म के नाम पर बंटा दिखता है, विजय कुशवाहा जैसे लोग बिना किसी प्रचार या मंच के गांव, समाज और इंसानियत को जोड़ने का काम कर रहे हैं। वे हर अंतिम यात्रा में सिर्फ शरीक नहीं होते, बल्कि वहां मौजूद लोगों के लिए एक संवेदना और सहानुभूति की मिसाल बनते हैं। उनकी मौजूदगी न केवल एक व्यक्ति को सम्मान देती है, बल्कि पूरे समाज को यह याद दिलाती है कि इंसानियत का धर्म सबसे बड़ा है।
जब किसी गांव की गलियों से अंतिम यात्रा गुजरती है, वहां चीख-पुकार के बीच एक चेहरा हमेशा शांत और संयमित नज़र आता है — वो चेहरा है विजय कुशवाहा का।
हर आंख नम होती है, हर दिल टूटता है… लेकिन विजय कुशवाहा वहाँ होते हैं — मौन, मगर मजबूत।
हर गांव में एक ‘विजय’ की जरूरत है
आज समाज को ऐसे लोगों की बेहद जरूरत है — जो बिना बुलाए पहुंचें, जो किसी स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि इंसानियत के धर्म के लिए खड़े हों।
विजय कुशवाहा उसी जरूरत का जीवंत उदाहरण हैं। उनकी उपस्थिति किसी परिवार के लिए सिर्फ सांत्वना नहीं होती — बल्कि एक एहसास होता है कि इस दुख में वे अकेले नहीं हैं।
उनका साथ कई लोगों के लिए साहस बन जाता है।
धर्म नहीं, दर्द देखते हैं विजय
जहाँ एक ओर समाज धर्म के नाम पर बंटता जा रहा है, वहीं विजय कुशवाहा उन चंद लोगों में से हैं जो धर्म नहीं, दर्द देखते हैं।
– अगर किसी मुस्लिम परिवार में जनाज़ा निकल रहा हो, तो विजय वहाँ मौजूद होते हैं।
– अगर किसी दलित, पिछड़े या गरीब के यहां कोई वृद्ध गुज़र जाए, तब भी विजय उसी श्रद्धा से कांधा देते हैं।
– और जब किसी अकेले व्यक्ति की मौत होती है, तो विजय खुद को उसका परिवार मान कर अंतिम संस्कार में साथ चलते हैं।
कभी मंदिर के पुजारी, अब समाज के सेवक
हिरमाती मंदिर (धुश, देवरिया) में मुख्य पुजारी रहे विजय कुशवाहा ने कभी धर्म को सिर्फ़ पूजा-पाठ तक सीमित नहीं किया।
उनके लिए धर्म का अर्थ है — किसी रोते हुए को सहारा देना, किसी टूटे हुए को थाम लेना।
इसलिए उन्होंने अपने साधारण जीवन में सबसे बड़ा उद्देश्य चुना — हर उस व्यक्ति की अंतिम विदाई में साथ देना, जो अकेला न रह जाए।
लोग क्या कहते हैं विजय कुशवाहा के बारे में?
गांव के बुज़ुर्ग कहते हैं:
“ऐसे लोग अब नहीं मिलते। ये लड़का तो जैसे समाज का बेटा बन गया है। अपने को भूलकर सबका बन गया है।”
कुछ नौजवान कहते हैं:
“वो हमें सिखाते हैं कि समाज सेवा केवल भाषणों से नहीं, कंधे देने से होती है। हम जैसे युवा उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं।”
एक सच्चा ‘गौरव’ — न कोई मेडल, न अखबार की हेडलाइन
आज जहां लोग पहचान और फोटो के लिए दूसरों की मदद करते हैं, वहीं विजय कुशवाहा किसी मेडल या मंच के इंतज़ार में नहीं हैं।
उनकी पहचान सिर्फ एक है — “जब भी किसी को जरूरत हो, मैं वहां रहूं।”
संवेदनाओं से बड़ा कोई धर्म नहीं — विजय कुशवाहा की सोच, हर दिल में उतरनी चाहिए
शायद यही कारण है कि देवरिया जिले का यह साधारण व्यक्ति, आज असाधारण काम कर रहा है —
लोगों के अंतिम पलों में साथ खड़े होकर, वो न केवल उन्हें सम्मान दे रहा है, बल्कि समाज को यह सिखा रहा है कि मरने के बाद की चुप्पी में भी इंसानियत बोल सकती है।
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